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संचित कर्म (Hindi)

  • Writer: Nandkishor Dhekane
    Nandkishor Dhekane
  • May 11, 2020
  • 3 min read

धर्मशास्त्र और नीतिशास्त्रों में कहा गया है कि कर्म के बगैर गति नहीं। सनातन धर्म भाग्यवादियों का धर्म नहीं है। वेद, उपनिषद और गीता- तीनों ही कर्म को कर्तव्य मानते हुए इसके महत्व को बताते हैं। यही पुरुषार्थ है।श्रेष्ठ और निरंतर कर्म किए जाने या सही दिशा में सक्रिय बने रहने से ही पुरुषार्थ फलित होता है। इसीलिए कहते हैं कि काल करे सो आज कर। वेदों में कहा गया है कि समय तुमको बदले इससे पूर्व तुम ही स्वयं को बदल लो- यही कर्म का मूल सिद्धांत है। अन्यथा फिर तुम्हें प्रकृति या दूसरों के अनुसार ही जीवन जीना होगा।

धर्म शास्त्रों में मुख्‍यत: छह तरह के कर्म का उल्लेख मिलता है-1.नित्य कर्म (दैनिक कार्य), 2.नैमित्य कर्म (नियमशील कार्य), 3.काम्य कर्म (किसी मकसद से किया हुआ कार्य), 4.निश्काम्य कर्म (बिना किसी स्वार्थ के किया हुआ कार्य), 5. संचित कर्म ( प्रारब्ध से सहेजे हुए कर्म) और 6.निषिद्ध कर्म (नहीं करने योग्य कर्म)

क्या है संचित कर्म?

हिंदू दर्शन के अनुसार, मृत्यु के बाद मात्र यह भौतिक शरीर या देह ही नष्ट होती है, जबकि सूक्ष्म शरीर जन्म-जन्मांतरों तक आत्मा के साथ संयुक्त रहता है। यह सूक्ष्म शरीर ही जन्म-जन्मांतरों के शुभ-अशुभ संस्कारों का वाहक होता है। संस्कार अर्थात हमने जो भी अच्छे और बुरे कर्म किए हैं वे सभी और हमारी आदतें।

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ये संस्कार मनुष्य के पूर्वजन्मों से ही नहीं आते, अपितु माता-पिता के संस्कार भी रज और वीर्य के माध्यम से उसमें (सूक्ष्म शरीर में) प्रविष्ट होते हैं, जिससे मनुष्य का व्यक्तित्व इन दोनों से ही प्रभावित होता है। बालक के गर्भधारण की परिस्थितियां भी इन पर प्रभाव डालती हैं।

ये कर्म 'संस्कार' ही प्रत्येक जन्म में संगृहीत (एकत्र) होते चले जाते हैं, जिससे कर्मों (अच्छे-बुरे दोनों) का एक विशाल भंडार बनता जाता है। इसे 'संचित कर्म' कहते हैं।

इन संचित कर्मों का कुछ भाग एक जीवन में भोगने के लिए उपस्थित रहता है और यही जीवन प्रेरणा का कार्य करता है। अच्छे-बुरे संस्कार होने के कारण मनुष्य अपने जीवन में प्रेरणा का कार्य करता है। अच्छे-बुरे संस्कार होने के कारण मनुष्य अपने जीवन में अच्छे-बुरे कर्म करता है। फिर इन कर्मों से अच्छे-बुरे नए संस्कार बनते रहते हैं तथा इन संस्कारों की एक अंतहीन श्रृंखला बनती चली जाती है, जिससे मनुष्य के व्यक्तित्व का निर्माण होता है।

दरअसल, इन संचित कर्मों में से एक छोटा हिस्सा हमें नए जन्म में भोगने के लिए मिल जाता है। इसे प्रारब्ध कहते हैं। ये प्रारब्ध कर्म ही नए होने वाले जन्म की योनि व उसमें मिलने वाले भोग को निर्धारित करते हैं। फिर इस जन्म में किए गए कर्म, जिनको क्रियमाण कहा जाता है, वह भी संचित संस्कारों में जाकर जमा होते रहते हैं।

पुनश्च:

हम जोभी कर रहे हैं जैसे सोचना, देखना, सुनना, समझना और अन्य कर्म करना। उनमें से कुछ हमारी आदतें बन कर संचित होने लगते हैं। संचित अर्थात संग्रहित, संग्रहित अर्थात स्टोर। वह कर्म जो स्टोर हो रहे हैं वह संचित कर्म कहे जाते हैं। बार बार एक ही कर्म या कार्य करने से वह कर्म या कार्य स्टोर हो जाता है। मरने के समय इस स्टोर कर्म का कुछ भाग हमारे साथ अगले जन्म में भी चला जाता है। वही भाग प्रारब्ध कहलाता है।

जिस तरह से चोर को मदद करने के जुर्म में साथी को भी सजा होती है ठीक उसी तरह काम्य कर्म और संचित कर्म में हमें अपनों के किए हुए कार्य का भी फल भोगना पड़ता है और इसीलिए कहा जाता है कि अच्छे लोगों का साथ करो ताकि कर्म की किताब साफ रहे। जिस बालक को बचपन से ही अच्छे संस्कार मिले हैं उसका कर्म भी अच्छा ही होगा और फिर उसके संचित कर्म भी अच्छे ही होंगे। अलगे जन्म में उसे अच्छा प्रारब्ध ही मिलेगा



 
 
 

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